मंगलवार, 22 मार्च 2011

कथा यू.के. को फ़्रेड्रिक पिन्कॉट सम्मान


(महामहिम श्री नलिन सूरी कथा यू.के. के महासचिव तेजेन्द्र शर्मा को पुरस्कार की धनराशि प्रदान करते हुए। साथ हैं श्रीमती ज़कीया ज़ुबैरी (संरक्षक) एवं दीप्ति शर्मा, उपसचिव।)
लंदन – 20 मार्च 2011, ब्रिटेन में भारतीय उच्चायुक्त महामहिम श्री नलिन सूरी ने कथा यू.के. को हिन्दी साहित्य एवं भाषा के प्रचार प्रसार के लिये वर्ष 2010 का फ़्रेड्रिक पिन्कॉट सम्मान प्रदान करते हुए उनके कार्यक्रमों की भूरि भूरि प्रशंसा की।

सम्मान ग्रहण करते हुए तेजेन्द्र शर्मा (महासचिव – कथा यू.के.) ने उच्चायोग को धन्यवाद दिया कि कथा यू.के. द्वारा हिन्दी साहित्य को विश्व पटल पर स्थापित करने के लिये किये जा रहे काम को सराहना मिली है। उन्होंने अम्बेडकर हॉल में उपस्थित मेहमानों को बताया कि कथा यू.के. हर वर्ष ब्रिटेन की संसद के हाउस ऑफ़ कॉमन्स एवं हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में भारतीय साहित्य को स्थापित करने के लिये अंतरराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान एवं पद्मानंद साहित्य सम्मान का आयोजन करती है।

तेजेन्द्र शर्मा ने आगे कहा कि पिछले वर्ष कथा यू.के. ने टोरोंटो (कनाडा) में एक हिन्दी कहानी की कार्यशाला का आयोजन किया था जबकि इसी वर्ष फ़रवरी में डी.ए.वी. कॉलेज यमुना नगर के साथ मिल कर भारत में तीन दिवसीय प्रवासी कहानी सम्मेलन का भी आयोजन किया था। कथा यू.के. समय समय पर हिन्दी सिनेमा से जुड़े कार्यक्रमों का भी आयोजन करती रही है।

उन्होंने आगे सूचना दी कि आगामी 14 अप्रैल 2011 को कथा यू.के. हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में एक विशेष कार्यक्रम आयोजित करने जा रहा है जिसमे भारत के प्रमुख मोटिवेशनल स्पीकर श्री मिनोचर पटेल श्रोताओं से बात करेंगे। उनके भाषण का मुख्य मुद्दा होगा- हैपिनेस दि इंडियन वे। उन्होंने भारतीय उच्चायोग, आई.सी.सी.आर एव् नेहरू सेन्टर का निरंतर समर्थन के लिये धन्यवाद किया।

इस कार्यक्रम में उषा राजे सक्सेना को हरिवंशराय बच्च्न सम्मान, स्वर्गीय महावीर शर्मा को हज़ारी प्रसाद द्विवेदी सम्मान (पत्रकारिता – मरणोपरांत), एवं एश्वर्ज कुमार को जॉन गिलक्रिस्ट सम्मान (अध्यापक) भी प्रदान किये गये।

कार्यक्रम का आयोजन भारतीय उच्चायोग लंदन में किया गया। उप-उच्चायुक्त श्री प्रसाद एवं मंत्री संस्कृति श्रीमति मोनिका मोहता मंच पर आसीन थे। हिन्दी एवं संस्कृति अधिकारी श्री आनंद कुमार ने संचालन किया।

सोमवार, 7 मार्च 2011

“ऐ भाई ज़रा देख के चलो... से शुरू हुआ नया हिन्दी फ़िल्मी मुहावरा” – तेजेन्द्र शर्मा


हिंदी फ़िल्मी गीतों में हिंदी - यह विषय था ४ मार्च की संध्या को हुए उस रोचक आयोजन का जिसे नेहरु सेंटर में कथा यू के, एशियन कम्युनिटी आर्ट्स और नेहरु सेंटर के सौजन्य से आयोजित किया गया था।
सुन्दर पुराने, नए हिंदी गीतों से भरी इस शाम पर एक शानदार पॉवर-पॉइंट प्रेजेंटेशन दिया कथा यू के .के महासचिव श्री तेजेंद्र शर्मा ने। इस खूबसूरत शाम का आगाज़ किया नेहरु सेंटर की निदेशक मोनिका मोहता जी ने. फिर हुआ शुरू हिंदी गीतों का सुन्दर सफ़र। इस आयोजन का मुख्य आधार यह बताना था कि हिंदी फिल्मो में हिंदी कविता की शुरुआत कैसे हुई और वह किन रास्तों से गुजर कर कहाँ तक पहुंची।

तेजेन्द्र शर्मा ने अपने प्रेजेंटेशन के माध्यम से कहा कि " पुराने समय में हिंदी गीतों को लिखने वाले जैसे मजरूह सुल्तानपुरी, डी. एन. मधोक, राजेन्द्र कृष्ण, साहिर, हसरत, कैफ़ी आज़मी आदि मूलत: उर्दू में लिखा करते थे और किसी ख़ास विषय या आयोजन पर ही हिंदी का प्रयोग किया करते थे। दरअसल यह लोग हिन्दी और पंजाबी भी उर्दू लिपि में लिखते थे।
फ़िल्मी गीतों में हिन्दी शब्दावली का प्रयोग तभी होता यदि फ़िल्म क्लासिकल संगीत पर आधारित होती या फिर गांव के जीवन पर। इसी तरह भजन या त्यौहारों के गीतो में में ही हिंदी का प्रयोग किया जाता था। उस समय की चित्रलेखा, आम्रपाली, झनक झनक पायल बाजे के गीत, जैसी फ़िल्मों में और अन्य फ़िल्मों के भजन तथा होली के गीतों में हिन्दी सुनाई देती।

आगे बोलते हुए तेजेन्द्र शर्मा जी ने कहा कि उस समय सभी गीतों में वही निश्चित स्थाई और अंतरे की परंपरा रहती थी जिससे कि गीतकार ऊबने लगे थे .और पहली बार लैला मजनू में शक़ील बदायुनी ने एक सीधी नज़्म लिखी - चल दिया कारवां. लुट गये हम यहां तुम वहां..... ठीक इसी तरह कैफ़ी ने फ़िल्म हक़ीकत में – मैं यह सोच कर उसके दर से उठा था... और डी. एन. मधोक ने तस्वीर में - दुनियां बनाने वाले ने जब चांद बनाया.... जैसे नग़मों में स्थाई और अंतरे को विदाई देने का प्रयास किया।

कवि प्रदीप, नरेन्द्र शर्मा, भरत व्यास, इन्दीवर शैलेन्द्र, नीरज आदि गीतकारों ने - सत्यम शिवम सुन्दरम, रजनी गंधा फूल.. आदि बेहतरीन हिंदी गीत हिंदी फिल्मो को दिए। परन्तु उनके गीत भी उर्दू नग़मों की ही तरह स्थाई और अंतरे में बन्धे रहते। यहां तक कि हिंदी का प्रयोग गानों में हिन्दी का मज़ाक उड़ाने के लिये भी किया जाता था एक सुन्दर हिंदी के गीत का कॉमेडी की तरह फिल्मीकरण करके उसका मजाक सा बना दिया जाता था - यदि आप हमें आदेश करे तो प्रेम का हम श्री गणेश करें....एक ऐसा ही गीत था जिसे कुछ अलग तरह फिल्माया जाता तो शायद इसका रूप ही अलग होता।

यह कहना अनुचित न होगा कि वर्तमान हिन्दी फ़िल्मी गीतों की शुरूआत हमें राज कपूर की फ़िल्म मेरा नाम जोकर तक ले जाती है। इस फ़िल्म के लिये कवि नीरज ने एक कविता लिखी जिसका संगीत शंकर जयकिशन ने बनाया था - ए भाई जरा देख के चलो.....और इस गीत ने हिंदी गीतों की परिभाषा बदल कर रख दी। उसके बाद आया गुलज़ार का - मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है ...और हिंदी गीतों में हिंदी कविता का नया रूप चल पड़ा। आज गुलज़ार,जावेद अख्तर,समीर, फैज़ अनवर,प्रसून जोशी जैसे गीतकार बिना स्थाई अन्तर वाले बेहतरीन गीत लिख रहे हैं और युवा पीढी उसे पूरे मन से सराह रही है।


फिर भी कभी कभी सुनने को मिलता है कि आज के गीतों में पुराने गीतों सी बात नहीं ..वह इसलिए कि हम गीत सुनते हैं, समझते नहीं. आज -फिल्म राजनीति का मेरे पिया मोसे बोलत नाहीं, रॉकेट सिंह का ख़्वाबों को... , तारे जमीं पर का माँ....आदि ऐसे कितने ही गीत आज लिखे जा रहे हैं जिनमें हिंदी कविता का बेहतरीन रूप देखने को मिलता है यहाँ तक कि दबंग जैसी निहायत ही व्यावसायिक फिल्म में भी हिन्दी मुहावरों से युक्त गीत देखने को मिलते हैं।

तेजेन्द्र शर्मा ने कहा कि आज के समय में गहरे अर्थ वाले कवितामय गीत लिखे जा रहे हैं और गुलज़ार ,जावेद अख्तर जैसे गीतकार युवा गीतकारों और भावों को पूरी टक्कर दे रहे हैं .बस जरुरत है गीतों को सुनने की समझने की।

पूरी शाम बेहतरीन गीतों से सजी हुई थी और श्रोता भाव विभोर से होकर उन गीतों का ना सिर्फ आनंद ले रहे थे बल्कि उसके सफ़र में भी हमराह हो रहे थे. उस पर हिंदी गीतों के सफ़र के साथी रहे, तेजेन्द्र शर्मा के अपने कुछ निजी और रोचक अनुभवों ने सभी श्रोताओं का भरपूर मनोरंजन किया। कार्यक्रम में नैन सो नैन (झनक झनक पायल बाजे), मन तड़पत हरि दर्शन को आज (बैजू बावरा), अरे जा रे हट नटखट.. (नवरंग), संसार से भागे फिरते हो (चित्रलेखा), प्रिय प्राणेश्वरी.. यदि आप हमें आदेश करें...(हम तुम और वो), ऐ भाई ज़रा देख के चलो... (मेरा नाम जोकर), इकतारा इकतारा (वेक अप सिड), मां... (तारे ज़मीन पर), पंखों को समेट कहीं रखने दो.... (रॉकेट सिंह), मोरे पिया मोसे बोले नाहीं (राजनीति), उड़ दबंग... (दबंग) आदि गीतों को स्क्रीन पर दिखाया गया।
इस बेहद खूबसूरत शाम का समापन एशियन कम्युनिटी आर्ट्स की अध्यक्षा काउंसलर ज़कीया ज़ुबैरी ने वहां उपस्थित सभी आम और खास मेहमानों का धन्यवाद करके किया।

इस रंगीन और खूबसूरत गीतों और जानकारी से भरी शाम में मोनिका मोहता (निदेशक-नेहरू सेंटर), काउंसलर ज़कीया ज़ुबैरी, सुश्री पद्मजा (फ़र्स्ट सेक्रेटरी – प्रेस एवं सूचना, भारतीय उच्चायोग), श्री आनंद कुमार (हिन्दी अधिकारी – भारतीय उच्चायोग), कैलाश बुधवार (पूर्व बी बी सी हिंदी प्रमुख ), प्रो. अमीन मुग़ल, डा. नज़रुल इस्लाम बोस, अरुणा अजितसरिया, सुरेन्द्र कुमार, दिव्या माथुर, दीप्ति शर्मा, अब्बास एवं रुकैया गोकल आदि सहित लन्दन के बहुत से गण्यमान्य व्यक्ति एवं संगीत प्रेमी उपस्थित थे...

- शिखा वार्ष्णेय

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

प्रवासी साहित्य को आरक्षण की जरुरत नहीं: तेजेंद्र शर्मा

“प्रवासी साहित्य को पाउंड में न तौलकर उसकी आलोचना भी होनी चाहिए, ताकि उनका साहित्य और ज़्यादा निखर कर सामने आ सके।“ डी.ए.वी. कॉलेज फ़ॉर गर्ल्ज़, यमुनानगर; हरियाणा और कथा यू.के. ; लंदन के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित तीन दिवसीय; 10-12 फ़रवरी, 2011 अन्तरराष्रीय य संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में ब्रिटिश लेबर पार्टी की काउंसलर तथा कहानीकार ज़कीया ज़ुबैरी ने अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने डी.ए.वी. कॉलेज फ़ॉर गर्ल्ज़ की प्रिंसिपल सुषमा आर्य के साथ मिल कर कथा यू.के. के पिछले 16 वर्षों के कार्यक्रमों की एक प्रदर्शनी का भी उद्घाटन किया।

मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध कथाकार एवं ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव का कहना था कि प्रवास का दर्द झेलना आज के दौर में मनुष्य की नियति है। यह दर्द कोई विदेश में जाकर झेलता है तो ढेर सारे लोग ऐसे हैं, जिन्हें देश के अंदर ही यह दंश झेलना पड़ता है। उन्होंने आशंका जताई कि अगर प्रवासियों का बहुत ज्यादा जुड़ाव अपनी जड़ों से होगा तो इससे साहित्य का विकास सही तरीके से नहीं हो सकेगा। विदेशों में जो लोग साहित्य की रचना कर रहे हैं, वे हमेशा दोहरी पहचान में बंधे रहते हैं जिस कारण वे न तो यहां की और न ही वहां की जिन्दगी में हस्ताक्षेप कर पाते हैं।


इस अवसर पर कथा यू.के.; लंदन के महासचिव और ‘क़ब्र का मुनाफ़ा’ जैसी चर्चित कहानी के लेखक सुप्रतिष्ठित कहानीकार तेजेंद्र शर्मा की पीड़ा थी कि विदेश में लिखे गए साहित्य को प्रवासी साहित्य का आरक्षण देकर मुख्य धारा के लेखकों में उन्हें शामिल नहीं किया जाता। उनका मानना है कि इस तरह विदेशों में लिखे जा रहे हिन्दी साहित्य को हाशिये पर धकेल दिया जाएगा।

इस अवसर पर दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो. गोपेश्वर सिंह ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि प्रवासी साहित्य एक स्थापित साहित्य है जिसे दरकिनार नहीं किया जा सकता। प्रवासी साहित्य के ज़रिए हिंदी अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना रही है। भाषा बदलती ज़रुर है लेकिन भ्रष्ट नहीं होती। डी.ए.वी. कॉलेज फ़ॉर गर्ल्ज़ की प्राचार्या डा. सुषमा आर्य ने कहा कि प्रवासी साहित्यकारों का भारतीय समाज के साथ जो रिश्ता होना चाहिए, वह किसी कारणवश नहीं बन पा रहा है। संगोष्ठी के संयोजक पत्रकार अजित राय ने कहा कि प्रवासी भारतीय साहित्य के प्रसार में मीडिया का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है।

देश और विदेशों में रह रहे लेखकों ने विभिन्न सत्रों में आयोजित प्रवासी हिंदी साहित्य पर विचारोतेजक चर्चा की। अबूधाबी से आए कहानीकार कृष्ण बिहारी ने कहा कि साहित्य तो साहित्य होता है चाहे वह विदेश में बैठकर लिखा गया हो या फिर देश में। भाषा तो अभिव्यक्ति का एक माध्यम है जो लोगों के दिल में बसती है। हमें प्रवासी साहित्यकार कहकर संबोधित न करें। बर्मिंघम से आए डा. कृष्ण कुमार ने कहा कि प्रवासी साहित्कारों ने शोध करके जिस साहित्य की रचना की है, वह अतुलनीय है। कनाडा से आईं ‘वसुधा’ की संपादक स्नेह ठाकुर का मानना था कि हिंदी के साथ कलम का ही नहीं अपितु दिल का रिश्ता भी है।

प्रवासी रचनाकारों की शिकायत भारतीय प्रकाशकों से भी कुछ कम नहीं थी कि उनकी रचनाओं को प्रकाशित करने के लिए एक ओर पैसे की मांग की जाती है वहीं दूसरी ओर हिंदी के प्रकाशक उनकी रचनाओं को प्रकाशित करने में वैसी दिलचस्पी नहीं दिखाते, जैसी कि वे भारत में रह रहे रचनाकारों की रचनाओं को प्रकाशित करने में दिखाते हैं। जिसे इस गोष्ठी में शिरकत कर रहे तीन प्रकाशकों - महेश भारद्वाज; सामायिक, ललित शर्मा; शिल्पायन और अजय कुमार; मेधा ने पैसे लेकर पुस्तक छापने की बात को सिरे से ख़ारिज कर दिया। इस संगोष्ठी में प्रवासी रचनाकारों की रचनाओं को लेकर हिंदी के लेखकों, आलोचकों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किए। संगोष्ठी के पहले सत्र, जो ‘जड़े देशभक्ति, भूमंडलीकरण और प्रवासी हिंदी कथा साहित्य’ पर केन्द्रित था, में मुख्य वक्तव्य देते हुए सुपरिचित आलोचक और ‘पुस्तक वार्ता’ के संपादक भारत भारद्वाज ने कहा कि विदेश में लिखे जा रहे हिंदी साहित्य को प्रवासी साहित्य की संज्ञा देना भ्रामक है।
ऐसी स्थिति में संपूर्ण आधुनिक हिंदी साहित्य को भी प्रवासी साहित्य कहना होगा क्योंकि तमाम लेखक अपनी जड़ों से कटे हुए हैं। प्रतिष्ठित उपन्यासकार भगवान दास मोरवाल ने ज़कीया ज़ुबैरी की कहानियों पर चर्चा करते हुए कहा कि ज़कीया की रचनाओं का आस्वाद लेने के लिए सिर्फ पाठक होना होगा वहीं कहानीकार हरि भटनागर ने कहा कि ज़कीया की कहानियां पढ़ते हुए लगता है कि मानो तंगहाली की कहानी मजे ले-लेकर सुनाई जा रही हो। दिव्या माथुर की कहानियों पर बोलते हुए अरुण आदित्य ने ‘सौ सुनार’ का जिक्र करते हुए कहा कि यह अपनी तरह की ख़ास कहानी है जिसका पूरा कथानक मुहावरों और लोकोक्तियों के आधार पर बढ़ता है। अजय नावरिया ने तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों को निर्मल वर्मा की कहानियों से आगे की कहानी कहा जिनमें ब्रिटेन की जीवन की सजीव झलक मिलती है।

मनोज श्रीवास्तव का कहना था कि प्रवासी लेखन दायित्व बोध से भरा हुआ है। यह साहित्य पर्यटन के लिये नहीं रचा जाता। महेन्द्र मिश्र का मानना था कि एक-दो रचनाओं के आधार पर रचनाकारों पर कोई राय नहीं बनाई जा सकती। संजीव, प्रेम जनमेजय, वैभव सिंह, महेश दर्पण, अजय नावरिया, निर्मला भुराड़िया, नीरजा माधव, पंकज सुबीर, शंभु गुप्त, अमरीक सिंह दीप, महेश दर्पण, विजय शर्मा, मधु अरोड़ा, जय वर्मा (नॉटिंघम) आदि ने भी अपने विचार प्रस्तुत किए।

इस सम्मेलन में ब्रिटेन से अचला शर्मा, दिव्या माथुर, डा. कृष्ण कुमार, नीना पॉल, अरुण सभरवाल, चित्रा कुमार, ज़कीया ज़ुबैरी, तेजेन्द्र शर्मा; कनाडा से स्नेह ठाकुर; शारजाह से पूर्णिमा वर्मन; एवं आबुधाबी से कृष्ण बिहारी आदि ने भाग लिया। इस तीन दिवसीय संगोष्ठी में चार पुस्तकों - भगवान दास मोरवाल का उपन्यास ‘रेत’ का उर्दू अनुवाद, लंदन से आईं कहानीकार दिव्या माथुर की ‘2050 और अन्य कहानियां’, कृष्ण बिहारी के कहानी संग्रह ‘स्वेत श्याम रतनार’ एवं तेजेंद्र शर्मा के अनुवादित पंजाबी संग्रह ‘कल फेर आंवीं’ - का लोकापर्ण भी हुआ। डी.ए.वी. कॉलेज की छात्राओं द्वारा तेजेंद्र शर्मा की कहानी ‘पासपोर्ट का रंग’ और ज़कीया ज़ुबैरी की कहानी ‘मारिया’ का नाट्य मंचन किया गया। संभवतः यह पहला अवसर है जब भारत में प्रवासी साहित्य पर सार्थक और विचारोतेजक अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई, जिसकी अनुगॅूज देर तक ही नहीं, दूर तक भी सुनाई पड़ेगी।
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-साधना अग्रवाल

संपर्कः 4-सी, उना एन्क्लेव, मयूर विहार फ़ेज़-1, दिल्ली-110091. मो. 9891349058

“साहित्य लेखकों को एक झण्डे तले लाता है।” – काउंसलर ज़कीया ज़ुबैरी।

“ आज जबकि चारों ओर आतंक और दुश्मनी का माहौल दिखाई दे रहा है, साहित्य का महत्व कई गुना अधिक बढ़ गया है। इस प्रकार की कथा-गोष्ठियों के आयोजन से हमारा प्रयास है कि हम हिन्दी और उर्दू के लेखकों के बीच एक बेहतर समझ पैदा कर सकें। आम आदमी के बीच मित्रता एवं शांति पैदा करने में लेखक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।” यह कहना था काउंसलर ज़कीया ज़ुबैरी का और मौक़ा था कथा यू.के. एवं एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स द्वारा मिल-हिल, लंदन में आयोजित साझा कथागोष्ठी जिसमें उर्दू की वरिष्ठ कहानीकार सफ़िया सिद्दीक़ि एवं हिन्दी के महत्वपूर्ण कथाकार तेजेन्द्र शर्मा ने प्रबुद्ध श्रोताओं के सामने अपनी अपनी कहानी का पाठ किया।


कथागोष्ठी में अन्य लोगों के अतिरिक्त श्रीमती मोनिका मोहता (निदेशक – नेहरू सेन्टर), श्रीमती पद्मजा (काउंसिलर – प्रेस एवं सूचना, भारतीय उच्चायोग), श्री आनंद कुमार (हिन्दी एवं संस्कृति अधिकारी), प्रो. मुग़ल अमीन, श्री कैलाश बुधवार, श्री एवं श्रीमती अजितसरिया, डा. नज़रुल इस्लाम बोस, परिमल दयाल, फ़हीम अख़्तर एवं सुरेन्द्र कुमार शामिल थे।

वरिष्ठ उर्दू कहानीकार सफ़िया सिद्दीक़ि ने अपनी कहानी 'माली बाबा' का पाठ किया जिसमें दो मालियों की तुलना की गई थी – एक जो पुराने भारत के किसी ज़मीदार घराने का माली है और दूसरा जो कि पूर्वी युरोप से ब्रिटेन में आकर बसने वाला प्रवासी है। तुलना दोनों के जीने के ढंग से शुरू होती है और उनके बच्चों के बनने वाले भविष्य पर आकर रुकती है। सफ़िया जी अपनी कहानी के अंत में कहती हैं कि काश! हमारे मुल्क़ के माली को भी जीवन में यहां के माली जैसे अवसर मिलें ।

कैलाश बुधवार कहानी से खासे प्रभावित दिखे। उनका कहना था कि यह कहानी हमें यह अहसास करवाती है कि अपने वतन में काम करने वालों को नीचा माना जाता है – वहां के बड़े लोग काम नहीं करते। यहां काम करने वालों की इज्ज़त होती है। परिमल दयाल के अनुसार कहानी के विवरण एवं भाषा कहीं भी बोरियत का अहसास नहीं होने देते। फ़हीम अख़्तर को लगा कि मालियों के चरित्र जैसे जीवन से ही उठा लिये गये थे। पद्मजा जी का कहना था कि कहानी का विन्यास बहुत अनूठा है। दोनों मालियों का जीवन समानांतर चलता है और कहीं कोई झटका नहीं लगता। आनंद कुमार को कहानी की भाषा की आंचलिकता ने बहुत प्रभावित किया। प्रो. मुग़ल अमीन के अनुसार कहानी में एक अंतर्प्रवाह है। यह केवल सीधी रेखा में नहीं चलती। लेखिका ने दिखाया है कि भारत के माली की भी ज़मींदारी सिस्टम में जितनी देखभाल संभव थी – हो रही थी। कहानी श्रम के महत्व को रेखांकित करती है।

तेजेन्द्र शर्मा की कहानी 'फ़्रेम से बाहर' एक बच्ची की कहानी है जिसे मां बाप बहुत प्यार करते हैं। मगर उसके जुड़वां भाई हो जाने के बाद उसके जीवन में जैसे एक तूफ़ान सा आ जाता है। मां बाप द्वारा उपेक्षा और कच्ची उम्र में ही होस्टल भेजा जाना नेहा के व्यक्तित्व में संपूर्ण परिवर्तन ले आते हैं। नेहा पर इस हादसे का कुछ ऐसा असर होता है कि उसका विवाह जैसी संस्था पर से विश्वास ही उठ जाता है। वह तय कर लेती है कि वह कभी भी बच्चे पैदा नहीं करेगी।

सभी ने करतल ध्वनि से तेजेन्द्र शर्मा के कहानी पाठ करने के अनूठे ढंग की सराहना की और विशेष तौर पर नेहा के जीवन में आए भावनात्मक तूफ़ान का चित्रण श्रोताओं के दिलों को छू गया। अरुणा अजितसरिया ने अपनी नम आंखों से कहा कि कहानी के थीम को इतने मर्मस्पर्शी ढंग से चित्रित किया गया है कि यह प्रत्येक घर की कहानी बन गई है। मुझे लगा जैसे मैं शायद अपनी कहानी सुन रही हूं। ज़कीया ज़ुबैरी का मानना था कि कहानी थीम, स्टाइल, घटनाक्रम, विन्यास, एवं निष्पादन में अनूठी है। लेखक अपने पाठक को नेहा की भावनाओं को समझने के लिये मज़बूर कर देता है। परिमल दयाल, सुरेन्द्र कुमार, फ़हीम अख़्तर एवं आनंद कुमार नेहा के दर्द और कहानी के नयेपन से प्रभावित दिखे। पद्मजा जी ने कहानी को थोड़ा विस्तार से विश्लेषित करते हुए कहा कि नेहा के दर्द को इतनी संवेदनशीलता से चित्रित किया गया है कि पाठक पर इसका गहरा असर होता है। नेहा और उसके माता पिता के बीच संवादहीनता एक ग्रंथि के रूप में उभर कर सामने आती है। जब नेहा का विवाह में विश्वास ख़त्म हो जाता है तो कहानी सामाजिक संरचना को बदलने का कारण बन जाती है। कैलाश बुधवार ने कहानी के चरित्र चित्रण एवं घटनाक्रम की तारीफ़ करते हुए कहा कि कहानी पाठक को बांध लेती है। किन्तु उन्हें लगा कि नेहा का विश्वास विवाह जैसी संस्था से उठने के लिये जो कारण दिखाये गये हैं वे काफ़ी नहीं हैं। यदि नेहा की मां को सौतेली दिखाया जाता तो बेहतर होता। प्रो. मुग़ल अमीन ने अध्यक्षीय टिप्पणी करते हुए कहा, “यह कहानी सहोदर भाई बहनों के बीच प्रतिद्वन्दिता की अद्भुत कहानी है और दिखाती है कि यह किस तरह हाथों से निकल कर विक्षिप्तता की हद तक पहुंच जाती है और रिश्तों में दरार पैदा हो जाती है। यह एक शाश्वत थीम है । लेखक को चाहिये था कि इस थीम को और अधिक विस्तार से प्रस्तुत करता।” ज़कीया ज़ुबैरी के धन्यवाद ज्ञापन के साथ ही गोष्‍ठी समाप्‍त हुई।
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दीप्ति शर्मा, 27 Romilly Drive, Carpenders Park, WD19 5EN